काव्यामृत

कर-में लेकर कटार,काजल से दैत्य-मार, दूर-करो भूमि-भार,माता कंकाली।

लक्ष्मी कांत सोनी

चंचरीक/चंचरी/
हरिप्रिया/चर्चरी छंद
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1-
कर-में लेकर कटार,काजल से दैत्य-मार,
दूर-करो भूमि-भार,माता कंकाली।
तेरी-सेना अपार,युद्ध-करे बार-बार,
आगे जा सिंह-चार,करें मार्ग खाली।।
करती-काली कमाल,भैरव अरु-महा काल,
राम-भक्त राम-लाल,काटें-रिपु डाली।
दुर्गा-लेकर त्रिशूल,नष्ट-करे शोक-मूल,
एक-नहीं करे भूल,मात-सिंह वाली।।
2-
काली होकर मतंग,नाच-रही शंभु संग,
छायी प्रेमिल उमंग,बहे प्रेम-धारा।
मुण्डों की माल-डाल,नृत्य-करे महाकाल,
लोचन हैं लाल-लाल,उड़े द्वेष-पारा।।
झूम-रही प्रेम-डाल,छायी छाया विशाल,
गौरा का देख-हाल,दमके ध्रुव-तारा।
जिभ्या का रक्त-रंग,काला है अंग-अंग,
भागे भय-से कुसंग,सुनकर -जयकारा।।
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प्रभुपग धूल

 

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