काव्यामृत

डोर-श्वास की टूट-गयी है, बाँकी बस-अभिलाषा है

लक्ष्मी कान्त सोनी

ताटंक
छंदाधारित गीत
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प्रेमिल-गगरी फूट-गयी है,
पत्थर-जैसी भाषा है।
डोर-श्वास की टूट-गयी है,
बाँकी बस-अभिलाषा है।।
1-
चाँद-चाहता ऐ-मन चंचल,
दूर-धरा से चंदा है।
प्रेम-माँगता ऐ-दिल पागल,
किन्तु-इरादा गंदा है।।
पलट-रहा दिल प्रेमिल-पन्ने,
नहीं-ज्ञात परिभाषा है।
डोर-श्वास की———–
2-
कमल-प्रेम का कैसे तोड़ूँ,
सिंधु-प्रेम का भारी है।
प्रेम-सिंधु में कैसे तैरूँ,
हृदय-मानता हारी है।।
उलझ-गया मन प्रेम-नगर में,
अति-प्यारी अपभाषा है।
डोर-श्वास की————
3-
भूल-गया सुध-बुध मन-मोहन,
अद्भुद हरि-की माया है।
भरी देह में अति शीतलता,
हिम-सी प्रेमिल छाया है।।
नाच-रहा सुन-कर गिरिधारी,
अति-मधुरिम ब्रजभाषा है।
डोर-श्वास की————-
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प्रभुपग धूल

 

 

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